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Wednesday 16 October 2013

राजपथ से

                                           दिग्गी की बोलती बंद 

  कांग्रेस के बड़बोले महासचिव दिग्विजय सिंह अपने बेसिर-पैर के बयानों के लिए पहचाने जाते हैं। कभी-कभी तो उनके बयान इतने विवादित होते हैं कि उनकी ही पार्टी को उनके बयानों को उनकी निजी राय बताकर पल्ला झाडना पड़ता है। पिछले दिनों भाजपा के घोषित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को राज्य स्तरीय और राहुल गांधी को राष्ट्रीय नेता बताकर वह भाजपा महासचिव रविशंकर प्रसाद के निशाने पर आ गए। 
   टीवी चैनल पर चल रही बहस में रविशंकर प्रसाद ने दिग्विजय को ऐसा धोया कि बेचारे की बोलती ही बंद हो गयी। प्रसाद ने कहा कि मोदी तो हमारे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं लेकिन उनकी (दिग्विजय की )उनकी ही पार्टी में हैसियत क्या है ?उनके बयानों से उनकी खुद की ही पार्टी हर बार पल्ला झाड लेती है। उनके खुद के राज्य में चुनाव हो रहे हैं और उन्हें कोई पूछने वाला नहीं है। जहां तक मोदीजी से बहस का सवाल है तो अभी उनकी वह स्थिति (हैसियत ) नहीं है।  वह बहस ही करना चाहते हैं तो मुझसे ही कर लें। और बेचारे दिग्गी एक चुप तो सौ चुप, क्योंकि वहां सेर के आगे सवा सेर जो था। 

                                         बड़े  का बड़प्पन 

    बिहार के पटना  में २७ अक्टूबर को तो नरेन्द्र मोदी की रैली पहले से ही तय थी और इसकी जानकारी राज्य प्रशासन और सरकार दोनों को हठी , फिर २६ और २७ अक्टूबर को राष्ट्रपति का कार्यक्रम लेकर क्या मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजनैतिक ओछापन नहीं दिखाया ?लोग कह रहे थे कि नीतीश ने ऐसा महज इसलिए किया क्योंकि वह राष्ट्रपति की सुरक्षा का बहाना लेकर मोदी की रैली की संभावित भीड़ को कम करना चाहते थे। 
       यदि २७ की भाजपा की रैली में राष्ट्रपति की सुरक्षा के बहाने अड़ंगे डालने की कोशिश होती तो पहले से ही तल्ख़ चल रहे जदयू और भाजपा के रिश्तों में एक और टकराव होना स्वाभाविक था , लेकिन बड़ा तो बड़ा ही होता है और वह बड़प्पन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने अपनी यात्रा को सीमित कर के दिखा दिया।  अब राष्ट्रपति २६ को अपना कार्यक्रम निपटाकर उसी दिन शाम पटना से दिल्ली वापस हो जायेंगे। इसे कहते हैं बड़े का बड़प्पन , लेकिन नीतीश ने जो ओछापन दिखाया उससे  की नज़र में उनका कद तो घटा ही है। 

                                            साथ छोड़ते साथी 

     मुजफ्फरनगर दंगों से आहत और बदलते राजनैतिक माहौल के मद्देनज़र सोमपाल शाष्त्री ने समाजवादी पार्टी का लोकसभा टिकट लौटा दिया था। यद्यपि अभी तक यह तय नहीं था कि शाष्त्री किस पार्टी में जायेंगे लेकिन माना यह जा रहा है कि वह अपनी पुरानी  पार्टी भाजपा में ही वापस लौटेंगे , तो इसके साथ ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई अन्य सपा नेताओं ने भी सपा को अलविदा कह दिया है। 
       बीते सप्ताह सपा के एक और बाहुबली सांसद तथा कैशरगंज क्षेत्र से सपा के लोकसभा उम्मीदवार ब्रजभूषण शरण सिंह ने भी सपा के टिकट पर चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया है। अटकलें लगाई जा रही हैं कि बदली परिस्थितियों में  ब्रजभूषण शरण सिंह भी अपनी पुराणी पार्टी भाजपा में लौट सकते हैं और भाजपा उन्हें गोंडा या फैजाबाद से चुनाव मैदान में उतार सकती है। शायद राजनेता सियासी परिस्थितियों को बेहतर पहचानते हैं और वे विपरीत परिस्थितियाँ देखकर ही सपा का दामन झटक रहे हैं ।  यदि यह सच है तो क्या सपा का राजनैतिक भविष्य संकट में नहीं दिखाई दे रहा है ?

                                             आप की बढ़ती ताकत 

     अरविन्द केजरीवाल की "आम आदमी पार्टी " की ताकत का अंदाजा अब कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही होने लगा है। आप वास्तव में आम आदमी की पार्टी है और थोड़े से ही अन्तराल में उसने दिल्ली की नयी कालोनियों, झुग्गी बस्तियों,दैनिक कर्मियों, फेरी वालों और छोटे व्यवसायियों के बीच अपनी मजबूत जमीनी पकड़ बना ली है तो साथ ही संगठित जनशक्ति भी अर्जित की है। आज दिल्ली की स्थिति यह है कि कोई भी प्रशासनिक अधिकारी अब आप कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का साहस नहीं कर पाता।
     यद्यपि अभी यह संभव नहीं दीखता कि आप चुनाव में इतनी सीटें हासिल कर ले कि दिल्ली में उसकी सरकार बन जाय , लेकिन राजनैतिक विश्लेषकों का आकलन है कि विधानसभा चुनाव में आप इतनी ताकत तो हासिल ही कर लेगी कि सरकार भाजपा या कांग्रेस में से जो भी बनाए, उसे बहुमत के लिए "आम आदमी पार्टी " के सहयोग की दरकार तो होगी ही। केजरीवाल ने कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही वोटों में सेंध लगाई है इसलिए आप को लेकर दोनों पार्टियां परेशान हैं।


                 

                                                                                                                                                                                      बिरादरी बनाम सरकार 

         बीते हफ्ते रघुराज प्रताप सिंह उर्फ़ राजा भैया को अखिलेश मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री के ओहदे से फिर नवाजा गया। उल्लेखनीय है कि  कुंडा में सीओ हत्याकांड को लेकर आरोपों से घिरे रघुराज को मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देना पडा था। जांच में राजा भैया के खिलाफ आरोप साबित नहीं हुए लेकिन मंत्रिमंडल में पुनः वापसी के लिए उन्हें लंबा इंतज़ार करना पडा। मायावती सरकार की राजा भैया के खिलाफ सख्ती के समय जो क्षत्रिय समाज रघुराज प्रताप सिंह का पक्ष  लेकर एकजुट हुआ था , उस समाज में उनके फिर से मंत्री बनने पर स्वाभाविक उत्साह नज़र नहीं आया। 
      वजह है मुजफ्फरनगर साम्प्रदायिक दंगों के सिलसिले में मेरठ के क्षत्रिय बहुल खेड़ा गाँव की पंचायत में पुलिस लाठीचार्ज और ठाकुरों के खिलाफ मुकदमों का दर्जकिया जाना । उल्लेखनीय है कि जब सैकड़ों ठाकुरों के खिलाफ एक साथ मुकदमे दर्ज हुए  तो ठाकुरों ने राजा भैया से मिलकर इस मामले में मदद का अनुरोध भी किया था । यह मामला भले ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश या मेरठ से संबधित है , जहां राजा भैया का विशेष प्रभाव नहीं है लेकिन बिरादरी पर सरकार की ज्यादती की खबर सारे राज्य में ठाकुरों को सरकार के खिलाफ लामबंद कर सकती है ।अभी गत सप्ताह ही पूर्वांचल के बाहुबली सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह द्वारा सपा के टिकट पर चुनाव लड़ने से इनकार को भी इसी सन्दर्भ में देखा जा रहा है। इस बार राजा भैया को मनाकर फिर सरकार में शामिल किया गया है तो उनका वजन भी पहले की अपेक्षा बढ़ा है । संभव है कि राजा भैया की मंत्रिमंडल में वापसी के पीछे ठाकुरों को संतुष्ट करने की सरकारी रणनीति हो लेकिन अब असली परीक्षा तो रघुराज प्रताप सिंह की ही होनी है क्योंकि उन्हें सरकार में रहते हुए अपनी बिरादरी को भी संतुष्ट करना है । फिलहाल बहुत आसान तो नहीं लगता यह  ।
                                                                                                                    _एस .एन .शुक्ल  

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