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Saturday 21 September 2013

संत , स्वामी और बाबा

                                            संत , स्वामी और बाबा

    संत कवि  तुलसीदास ने साढ़े चार सौ वर्ष पहले अपनी कृति रामचरित मानस में कहा था " तपसी धनवंत दरिद्र गृही , कलि कौतुक तात न जात कही " यद्यपि तब तपस्वी और संत मोहमाया मुक्त हुआ करते थे , लेकिन तुलसीदास भविष्य दृष्टा थे और उन्होंने जो अब से साढ़े चार सौ वर्ष पहले लिख दिया वह आज प्रत्यक्ष में दिख रहा है। पहले धार्मिक स्थानों और तीर्थस्थलों पर राजाओं तथा सेठों की बनवाई धर्मशालाएं होती थीं , जहां श्रृद्धालुओं के अतिरिक्त साधु - संत भी आकर आश्रय लेते थे और फिर अपने गंतव्य की ओर चल देते थे। साधुओं को धन जुटाने की आवश्यकता तब इसलिए भी नहीं थी क्योंकि उनके खर्चे सीमित थे , उनके भोजन की चिंता समाज करता था, वस्त्रादि भी  श्रृद्धालु दान में देते ही थे। जंगल में कुटिया , ईश आराधना, गोसेवा और समाज को सन्मार्ग पर चलने की सतत प्रेरणा। यही था उनका जीवन। तभी वे आज भी मानव स्मृतियों में जीवित हैं और उनकी कथाएं ग्रंथों में। वैदिक कालीन संतों महर्षि भारद्वाज, याज्ञवल्क,यमदग्नि,से महर्षि दधीचि और फिर मध्यकाल के संतों सूर, कबीर, तुलसी, तिरुवल्लुवर, तुकाराम और रविदास तक या फिर महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद में से किसको धन की आवश्यकता थी। 
       आज समय बदल गया है।  सच्चे संतों की जगह तिकड़मी, अपराधी और व्यापारी संत के वेश में आष्टा का दोहन कर रहे हैं। अब धार्मिक स्थलों और तीर्थों पर इन्हीं कथित स्वामियों की पंचसितारा होटल की सुविधाओं वाली धर्मशालाएं हैं, जहां सबकुछ उपलब्ध है, जिसकी आप किसी पंचसितारा होटल में अपेक्षा कर सकते हैं। साफ़ शब्दों में कहें तो शराब और शबाब भी।  यही वजह है कि नव धनाड्यों और सेठों- साहूकारों को कथित संतों की ये धर्मशालाएं लुभाती हैं। जहां वे पैसा खर्च करते हैं, ऐयाशियां करते हैं और उनकी करतूतें समाज में सार्वजनिक भी नहीं होनें पातीं।  आज का राजनैतिक चरित्र भी किसी से छिपा नहीं है। ऐसे ढोंगी बाबाओं के सबसे बड़े ग्राहक तो वे ही हैं और किसी अप्रत्याशित स्थिति में पुलिस तथा कानून से बचाने में वे ही उनके मददगार भी बनाते हैं।     
      जब राजनेता ऐसे बाबाओं का चरण वंदन करने लगते हैं तो स्वाभाविक तौर पर उनकी महत्वाकांक्षाएं भी हिलोरें लेने लगती हैं।  वे भी सत्ता का सुख भोगने को लालायित हो उठते हैं।  यही वजह है कि कभी बाबा जय गुरुदेव ने दूरदर्शी पार्टी बनायी थी, बाबा रामदेव ने स्वाभिमान ट्रस्ट के माध्यम से चुनाव मैदान में प्रत्याशी उतारने की योजना बनायी थी और आचार्य श्रीराम शर्मा के उत्तराधिकारी तथा शांतिकुंज हरिद्वार के सर्वेसर्वा प्रणव पांड्या ऐसी योजना बनाते-बनाते रह गए। यद्यपि कुछ बाबाओं ने संपत्ति भी जुटाई  और समाज के लिए कुछ कर भी रहे हैं , लेकिन जो कथित संत प्रवचन देने के लिए अपने समय या घंटों के हिसाब से मेहनताना मागते हैं, आश्रमों   में शुद्ध व्यावसायिक गतिविधियाँ चला रहे हैं, लोगों की भीड़ जुटाकर गरीबों की सम्पत्तियों पर कब्जा कर रहे हैं या सरकारी जमीनों पर जबरन काबिज हो रहे हैं, उन्हें संत कैसे माना जा सकता है ?
        जिस देश की ४० फीसदी जनसंख्या कुपोषण की मार झेल रही हो, वैश्विक रिपोर्ट के अनुसार विश्व के कुल कुपोषित बच्चों में से यदि हर तीसरा बच्चा भारत का हो और उसी भारत में यदि ढोंगी बाबाओं पर हर रोज लाखों रुपया लुटाया जा रहा हो।  वे चांदी के सिंहासन पर बैठकर और सोने का मुकुट पहनकर अपनी पूजा करा रहे हों और जनता  अंधश्रद्धा में उन्हें भगवान मानकर उनकी पूजा कर रही हो, तो ऐसे देश का भविष्य तो स्वयं ही सवालों के घेरे में खड़ा नजर आता है।  सरकार इनके अवैध रूप से कब्जा कर बनाए गए आश्रमों, जिनमें प्रायः मंदिर खड़े कर दिए जाते हैं, को छेड़ने  का साहस नहीं जुटा सकती क्योंकि तब वह धर्मविरोधी ठहरा दी जायेगी और अंध विश्वाशी , श्रद्धालु सरकार के खिलाफ सडकों पर उतर आयेंगे। 
       ऐसी धर्म  की दुकानें केवल हिन्दू धर्म के बाबाओं की ही नहीं हैं।  राष्ट्रीय और राजकीय मार्गों का हिस्सा घेरकर बनायी गयी मस्जिदें, सड़क यातायात में बाधक देश भर में फ़ैली हजारों की संख्या में  मजारें, जहां ख़ास दिनों में भीड़ बढ़ जाती है, जहां उर्स होते हैं, मेले लगते हैं और पुलिस भीड़ को नियंत्रित करने में हलकान रहती है। 
      कोई अनहोनी, कोई हादसा हो जाय तो सरकार की भड़ास भी ड्यूटी पर तैनात पुलिस और अधिकारियों के निलंबन पर ही निकलती है। पुलिस ऐसे बाबाओं और स्वामियों में श्रद्धा रखने वाली भीड़ और उनके राजनैतिक रसूखों के आगे बेबस हो जाती है। आशाराम भी ऐसे ही अंध श्रद्धालुओं द्वारा पूजा जानेवाला कथित बाबा है।  वह संत की नहीं ऐश्वर्यपूर्ण राजशी जिन्दगी जीता रहा है। इस समय वह भले ही अपने ही आश्रम द्वारा संचालित स्कूल में शिक्षा पा रही एक अवयस्क बालिका के यौन शोषण के आरोप में जेल में है लेकिन उसके पास अपार पैसा है , वह नामी वकील खड़े कर और गवाहों को खरीद कर आरोपों से मुक्त हो सकता है , लेकिन क्या इससे वह पाक दामन हो जाएगा ?
      कहावत हीब कि " बकरी पत्ता खाति है, तिसै सतावै काम / जे नित रबड़ी खाति हैं , तिनको कौन कयाम। यह कहावत आशाराम पर अक्षरशः चरितार्थ होती है। वह जेल में भी महिला वैद्य से उपचार की मांग करता है , क्या इसके बाद भी आशाराम की बलवती कामवासना पर संदेह रह जाता है ? राम जेठमलानी को उसने वकील नियुक्त किया है।  संभव है कि जेठमलानी अपने तर्कों के बल पर आशाराम को सजा से बचाने में कामयाब भी हो जाएँ लेकिन क्या इससे उसके पाप भी धुल जायेंगे ? सवाल जनता के जागने का है , उसके जागरुक बनाने का है लेकिन क्या भारत में ऐसा संभव है जहां लोग बस भेड़ों की तरह पीछे चलना भर जानते हैं ?

1 comment:

  1. सटीक विश्लेषण-
    बढ़िया दृष्टिकोण-
    आभार आदरणीय-

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