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Sunday 16 September 2012

लोकतंत्र, मीडिया और मुसलमान -2

                 " हमलों के पीछे सुनियोजित साजिश "

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             स्वाधीन और लोकतांत्रिक भारत का यह इतिहास रहा है कि यहाँ के मीडिया जगत ने समाचारों के मामले में कभी धार्मिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया। कालान्तर में कुछ ऐसे समाचार- पत्र प्रकाशित अवश्य हुए जो किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष के प्रति आशक्ति से भरे थे किन्तु उन्हें जनस्वीकार्यता कभी नहीं मिल पायी। वे पानी के बुलबुलों की तरह उठे और खुद ही कालकवलित हो गए, फिर मीडिया की धर्मनिरपेक्षता पर उंगली कैसी उठायी जा सकती है ? अयोध्या की विवादित धार्मिक इमारत, चाहे वह बाबरी मस्जिद रही हो या राम जन्मभूमि, उसे ध्वस्त करने वालों, उपद्रवियों को उकसानेवालों के चहरे मीडिया ने ही बेनकाब किये थे तो अनेकों बार ऐसा भी हुआ है कि सौहार्द के खिलाफ साजिशों को बेनकाब करने में मीडिया ने अहम् भूमिका निभाई है। हम एक बार मीडिया हाउस मालिकों की नीयत पर तो उंगलियाँ उठा सकते हैं लेकिन मीडियाकर्मियों,  समाचार- पत्र  प्रतिनिधियों की  निष्ठा, ईमानदारी और जिम्मेदारियों के प्रति समर्पण पर संदेह नहीं कर सकते। वे घटनाओं और समाचारों का सच अपने प्रकाशनों और प्रसारण  केन्द्रों तक पहुंचाते हैं, लेकिन कई बार वह सच मीडिया हाउस मालिकों के स्वार्थ, उनके व्यावसायिक हितों के कारण समाज तक नहीं पहुँच पाता और यही वह गडबडी है जिसके कारण दोषी न होने के बावजूद मीडियाकर्मियों की ईमानदारी को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा है।
           रमजान के महीने में मुस्लिम समुदाय की जो आक्रामकता मुम्बई में मीडियाकर्मियों के साथ नज़र आयी, उसकी घोर निंदा की जानी चाहिए लेकिन उस आक्रामकता और आक्रोश की जो ध्वनि बाहर आ रही थी उसे भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। कहा जा रहा था कि मीडिया मुस्लिम नेताओं और धर्मगुरुओं से जुडी खबरों को तो प्राथमिकता देता है लेकिन मुस्लिम समुदाय की पीड़ाओं, परेशानियों और उनकी समस्याओं को नज़रंदाज करता है। यदि ये आरोप सही हैं तो मीडिया को भी अपनी भूमिका का पुनः आकलन करना चाहिए कि क्या वह अपनी भूमिका के साथ न्याय कर पा रहा है ?अपनी अनदेखी के प्रति किसी समुदाय विशेष का गुस्सा भी स्वाभाविक है , लेकिन लोकतंत्र में विरोध का तरीका भी लोकतांत्रिक होना चाहिए। अपनी बात कहने के लिए हिंसा को माध्यम बनाने वालों की बात शायद ही कोई सुनाने को तैयार होगा। यदि मुम्बई में और फिर बाद में उसी तर्ज पर लखनऊ में मीडिया पर हमले आम मुसलमानों की उपेक्षा के कारण मुसलमानों द्वारा ही किये गए हों , तो क्या उससे मीडिया उन्हें महत्व देने लगेगा ? निश्चित है कि ऐसा नहीं होगा। किसी पर हमला करके आप हमेशा के लिए उसकी अपने प्रति हमदर्दी को गँवा देंगे। यह बात आम मुसलमान भी समझता है , इसलिए उक्त दोनों ही शहरों में मीडिया पर हुए हमलों में आम मुसलमान की भूमिका किसी तौर पर भी समझ से परे है।
          हमले हुए हैं, हमले करने वाले लोग भी मुस्लिम समुदाय के थे, लेकिन वे मुसलमान नहीं थे। अलविदा की नमाज केवल अपनी सलामती के लिए नहीं , सारी कायनात की सलामती और खुशहाली के लिए अदा की जाती है। हर नमाजी शायद अलविदा के दिन ऐसी दुआ मांगता भी है, फिर वह उसी समय कोई मारपीट, कोई हमला क्यों और कैसे कर सकता है ? इसका सीधा सा मतलब निकलता है कि मीडिया पर हमला करनेवाले लोग  किराए  के   गुंडे थे और जो कुछ भी हुआ वह एक सुनियोजित साजिश के तहत हुआ। साजिश क्यों रची गयी, साजिश को अंजाम देने के लिए वही वक्त क्यों मुक़र्रर किया गया, जब मस्जिदों में नमाज़ पढ़कर भारी संख्या में मुसलमान बाहर निकल रहे थे ?
           इन सवालों के जवाब खोजना कठिन नहीं है। यह साजिश शायद मीडिया को मुसलमानों का दुश्मन बनाने के लिए रची गयी, ताकि नाराजगी में मीडिया के लोग एक समूचे सम्प्रदाय की ही उपेक्षा करने लगें। नमाज़ के ठीक बाद का वक्त शायद हमले के लिए इसलिए भी तय किया गया होगा, कि हमलावरों के पहनावे को देखकर लोगों में उनके मुसलमान होने का भ्रम पैदा हो और पुलिस तथा प्रशासन का दबाव बढ़ने पर हमलावर आसानी से अपने को नमाजियो की भीड़ ं के बीच छिपा सकें। शायद साजिशकर्ताओं को पूरी तरह यकीन रहा होगा कि साम्प्रदायिक तनाव बढ़ने के भय से पुलिस और प्रशासन हमलावरों पर बल प्रयोग करने और उन्हें पकड़ने से गुरेज़ करेगा। यह भारतीय लोकतंत्र की राजनैतिक विवशता रही है कि प्रशासन साम्प्रदायिक माहौल बिगड़ने के भय से कई बार खून के घूँट निगलने को विवश हुआ है। ऐसा ही बाबरी ध्वंश के समय भी हुआ था और वही मुम्बई तथा लखनऊ में मीडिया पर हमले के समय भी हुआ। साजिशकर्ताओं ने देश की व्यस्थागत कमजोरी का फ़ायदा उठाया और सम्प्रदाय विशेष तथा मीडिया के बीच नाइत्तिफ़ाकी पैदा करने में बहुत हद तक फौरी तौर पर ही सही, कामयाब भी रहे।
        एक बात और भी गौर करने की है कि मुम्बई और लखनऊ दोनों ही शहरों में मीडिया पर हमले रमजान के पाक महीने में और आम मुसलमान के रोजों के दौरान  हुए। रोज़ेदार रोजा रखते हुए लार निगलना, झूठ बोलना और किसी के लिए अपशब्दों का प्रयोग करना भी गुनाह सामझता ह, तो वह उस दौरान मारपीट, तोड़-फोड़ करके रोज़े के शबाब का हकदार कैसे हो सकता है ? यह बात तो एक गैर पढ़ा- लिखा और जाहिल मुसलमान भी समझता और मानता है, फिर ऐसी घटनाओं में आम मुसलमानों की भागीदारी क्या संदेहास्पद नहीं मानी जानी चाहिए ?
           भारतीय लोकतंत्र में भारत के मुसलमानों को पूरी तरह यकीन है और वे जानते हैं कि इस देश में उनके हक़ को कोई खतरा भी नहीं है। जहाँ तक सवाल मीडिया का है तो मीडिया किसी धर्म, मज़हब, फिरके या सम्प्रदाय विशेष की नुमाइंदगी नहीं करता। मीडिया आम आदमी के हितों की हिफाजत के लिए है, उनके अधिकारों की रक्षा के लिए पूरी तरह समर्पित भी है और उस आम तबके में सभी धर्म, सम्प्रदाय तथा जातियाँ शामिल हैं। जिन पर हमले हुए उनमें मुस्लिम सम्प्रदाय के मीडियाकर्मी भी थे और वे बख्शे भी नहीं गए, फिर वे हमलावर कैसे मुसलमान थे जिन्होंने नमाज़ अदा करने के बाद अपनी ही बिरादरी के लोगों से मारपीट की ? इसका सीधा सा अर्थ है कि जो कुछ भी हुआ, वह साजिश का परिणाम था और ऐसी साजिशों के खिलाफ भारतीय लोकतंत्र के जिम्मेदार लोगों, बुद्धिजीवियों ,मीडियाकर्मियों   ,  आम मुसलमानों और देश की अवाम     को एक  होना   ही होगा।ै
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